भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 से इस देश में लागू होने के बावजूद भी आम आदमी की उम्मीद, आकांक्षा, इच्छा, जरूरत को ध्यान में रखते कोई बुनियादी काम नही कर पाया हैं। आज तो हालात ये है कि गण और तंत्र दोनो आमने-सामने युद्ध के मेदान में दुश्मनो की सेनाएं जैसे खड़ी होती है वैसे खड़े है। आज गण के हित अलग है और तंत्र के हित अलग है। देश की कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका एवं देश के जनसंगठन कोई भी ठीक तरीके से जनभावनाओं के अनुरूप कार्य नही कर पा रहे है। 90 प्रतिशत जनसंगठन चाहे छात्र, युवा, महिला, श्रमिक या वंचित वर्ग के संगठन हो किसी न किसी राजनैतिक संगठन से निर्देेशित हो रहे है। जबकि होना यह चाहिए कि उन्हें निश्चित विचारधारा, कार्यक्रम व समयबद्ध योजना के आधार पर काम करना चाहिए। कार्यपालिका में सरकार के अन्दर बेठे जनप्रतिनिधि व नौकरशाह ऐसी नीतिया एवं कानूनो को लागू कर रहे है जो आम आदमी को न केवल तकलीफ में डाल रहे है बल्कि उसे भ्रष्ट बनाने के साथ-साथ नैतिक रूप से कमजोर भी बनाने का प्रयास किया जा रहा हैं। आज जो कानून बनते है उसमें इस तरह की अपेक्षा की जाती है कि वह साबित करे कि वह इमानदार है और उसने किसी कानून का उल्लंघन नही किया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि देश के आम आदमी को हमारी कार्यपालिका व्यवस्था इमानदार मानने को तैयार ही नहीं है क्योंकि नीतिया बनाने वाले खुद जब पारदर्शी नहीं होते है तो वह जनता की अदालत में जवाबदेही से बचने के लिए दोष जनता पर ही मढ देते है। देश की न्यायपालिका कुछ अपवादो को छोडके देश के वंचित वर्ग को उसके संवैधानिक अधिकारों को दिलाने में बहुत ज्यादा सफल नहीं हुई हैं। हिन्दुस्तान का 80 प्रतिशत व्यक्ति आज गरिमामय जीवन जीने के अधिकार से वंचित है। सूचनाएं आज भी आम आदमियों के बीच में नहीं जा रही हे। जिससे वो तय नहीं कर पा रहा है कि देश के खजाने का उपयोग कौन लोग किस प्रकार कर रहे है। कहा विकास हो रहा है और कहां विनाश हो रहा है। सार्वजनिक सम्पतिया एवं खजाने पर आम आदमी का या देशक े समाज का अधिकार होता है परन्तु सरकार में बैठने वाले लोग इसे महज सरकारी सम्पतिया एवं कोष मानकर मनमाने तरीके से इसका इस्तेमाल एवं आवंटन करते है। अब प्रश्न यह खडा होता है कि देश की संसद को या विधायिका को जो कानून बनाने चाहिए थे वो नहीं बने आज भी न्यायपालिका के क्षेत्राधिकार से कई ट्रीब्यूनल प्राधिकरण, मच बनाकर न्यायपालिका को कमजोर करने का अभियान चलाया जा रहा है। न्यायपालिका यदि न्यायिक अवमानना की धमकी देकर आम जनता को उनके खिलाफ विचार व्यक्त करने से रोकती है तो निश्चित तौर पर यह संविधान की भावनाओ के विपरित होगा। आज जनसंगठन, गैरसरकारी संगठन, स्वयंसेवी संगठन, धर्माथ ट्रस्ट एवं सामाजिक संगठन अपने आप को समाज के साथ जुड़ा हुआ परन्तु इन संगठनों पर भी पैसो के बल पर या राजनैतिक पहुच के आधार पर लोग काबिज हो जाते है और जनता की जरूरतो को दरकिनार करते हुए अपनी पहुच बनाने में लगे रहते है। आज हालात यह है कि गण या जनता पूरी तरह ठगा हुआ महसूस कर रही है। जनता की आवाज को बुलंद करते हुए मजबूत, प्रभावी, निश्चित दिशा व कार्यक्रम के आधार पर जनता की जरूरतो को मद्देनजर रखते हुए प्रभावी, संगठित एवं सतत आन्दोलन चलाने की आवश्यकता है ताकि जनता को उसके वास्तविक अधिकार हासिल कर सके। यह उल्लेखकरना लाजमी है कि जनता का आंदोलन जब तक जनता के पैसो से नही चलेगा तब तक वह आंदोलन जन आंदोलन न होकर जो पैसा लगाएगा उनका आंदोलन होगा।।
शुक्रवार, 25 जनवरी 2013
भारतीय गणतंत्र आम आदमी की उम्मीद पर खरा नही उतरा है - व्यास
भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 से इस देश में लागू होने के बावजूद भी आम आदमी की उम्मीद, आकांक्षा, इच्छा, जरूरत को ध्यान में रखते कोई बुनियादी काम नही कर पाया हैं। आज तो हालात ये है कि गण और तंत्र दोनो आमने-सामने युद्ध के मेदान में दुश्मनो की सेनाएं जैसे खड़ी होती है वैसे खड़े है। आज गण के हित अलग है और तंत्र के हित अलग है। देश की कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका एवं देश के जनसंगठन कोई भी ठीक तरीके से जनभावनाओं के अनुरूप कार्य नही कर पा रहे है। 90 प्रतिशत जनसंगठन चाहे छात्र, युवा, महिला, श्रमिक या वंचित वर्ग के संगठन हो किसी न किसी राजनैतिक संगठन से निर्देेशित हो रहे है। जबकि होना यह चाहिए कि उन्हें निश्चित विचारधारा, कार्यक्रम व समयबद्ध योजना के आधार पर काम करना चाहिए। कार्यपालिका में सरकार के अन्दर बेठे जनप्रतिनिधि व नौकरशाह ऐसी नीतिया एवं कानूनो को लागू कर रहे है जो आम आदमी को न केवल तकलीफ में डाल रहे है बल्कि उसे भ्रष्ट बनाने के साथ-साथ नैतिक रूप से कमजोर भी बनाने का प्रयास किया जा रहा हैं। आज जो कानून बनते है उसमें इस तरह की अपेक्षा की जाती है कि वह साबित करे कि वह इमानदार है और उसने किसी कानून का उल्लंघन नही किया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि देश के आम आदमी को हमारी कार्यपालिका व्यवस्था इमानदार मानने को तैयार ही नहीं है क्योंकि नीतिया बनाने वाले खुद जब पारदर्शी नहीं होते है तो वह जनता की अदालत में जवाबदेही से बचने के लिए दोष जनता पर ही मढ देते है। देश की न्यायपालिका कुछ अपवादो को छोडके देश के वंचित वर्ग को उसके संवैधानिक अधिकारों को दिलाने में बहुत ज्यादा सफल नहीं हुई हैं। हिन्दुस्तान का 80 प्रतिशत व्यक्ति आज गरिमामय जीवन जीने के अधिकार से वंचित है। सूचनाएं आज भी आम आदमियों के बीच में नहीं जा रही हे। जिससे वो तय नहीं कर पा रहा है कि देश के खजाने का उपयोग कौन लोग किस प्रकार कर रहे है। कहा विकास हो रहा है और कहां विनाश हो रहा है। सार्वजनिक सम्पतिया एवं खजाने पर आम आदमी का या देशक े समाज का अधिकार होता है परन्तु सरकार में बैठने वाले लोग इसे महज सरकारी सम्पतिया एवं कोष मानकर मनमाने तरीके से इसका इस्तेमाल एवं आवंटन करते है। अब प्रश्न यह खडा होता है कि देश की संसद को या विधायिका को जो कानून बनाने चाहिए थे वो नहीं बने आज भी न्यायपालिका के क्षेत्राधिकार से कई ट्रीब्यूनल प्राधिकरण, मच बनाकर न्यायपालिका को कमजोर करने का अभियान चलाया जा रहा है। न्यायपालिका यदि न्यायिक अवमानना की धमकी देकर आम जनता को उनके खिलाफ विचार व्यक्त करने से रोकती है तो निश्चित तौर पर यह संविधान की भावनाओ के विपरित होगा। आज जनसंगठन, गैरसरकारी संगठन, स्वयंसेवी संगठन, धर्माथ ट्रस्ट एवं सामाजिक संगठन अपने आप को समाज के साथ जुड़ा हुआ परन्तु इन संगठनों पर भी पैसो के बल पर या राजनैतिक पहुच के आधार पर लोग काबिज हो जाते है और जनता की जरूरतो को दरकिनार करते हुए अपनी पहुच बनाने में लगे रहते है। आज हालात यह है कि गण या जनता पूरी तरह ठगा हुआ महसूस कर रही है। जनता की आवाज को बुलंद करते हुए मजबूत, प्रभावी, निश्चित दिशा व कार्यक्रम के आधार पर जनता की जरूरतो को मद्देनजर रखते हुए प्रभावी, संगठित एवं सतत आन्दोलन चलाने की आवश्यकता है ताकि जनता को उसके वास्तविक अधिकार हासिल कर सके। यह उल्लेखकरना लाजमी है कि जनता का आंदोलन जब तक जनता के पैसो से नही चलेगा तब तक वह आंदोलन जन आंदोलन न होकर जो पैसा लगाएगा उनका आंदोलन होगा।।
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सहीं कहाँ आपने....... अच्छा लेख
जवाब देंहटाएंhttp://savanxxx.blogspot.in