शनिवार, 3 नवंबर 2012

भारत में लोकहितो की बजाय स्वःहित से प्रेरित होकर नीतियाँ बनाने पर आमादा है सरकारे - व्यास


     आजादी के बाद भारतीय राजनीति ने संसदीय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को स्वीकार किया। इस व्यवस्था में देश के व्यस्क नागरिक अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से देश की सर्वोच्च राजनैतिक सत्ता से लेकर ग्राम पंचायत की पंचायत सत्ता तक को चुनता है। इस व्यवस्था के माध्यम से नागरिक उम्मीद करता है कि देश के निर्वाचित राजनेता देश के खजाने का इस्तेमाल लोकहित में ही करेंगे। साथ ही वह यह भी उम्मीद करता है कि देश का लोकप्रतिनिधि या नेता देश की जनता को चुस्त एवं संवेदनशील प्रशासन देगा। देश के खजाने को एवं देश के संसाधनो को देश के आमहितो के लिये ही खर्च करेगा अर्थात सामुदायिक हितो को महत्व देते हुए ही कार्य करेगा परन्तु आज आजादी के इतने लम्बे समय गुजर जाने के पश्चात देश का नागरिक अपने आप को लुटा-पीटा ठगा सा महसूस कर रहा है। लोकहितो के बजाय आज स्वःहित समाज पर हावी हो गया है। समाज की संस्कृति आज यह हो गयी है कि ऐन-केन प्रकारेण धन अर्जित कर लिया जाये तब भी समाज उस पर अंगुली उठाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है परिणाम यह हुआ कि कोई भी व्यक्ति रातो-रात करोड़पति हो जाये तब भी समाज सवाल खडा करने के बजाय उसका अभिनन्दन करना एक संस्कृति हो गयी है सत्ता, संम्पति, वैभव का खेल आज इस कदर आगे बढ गया है कि ईमानदार होना जैसे कोई बहुत बड़ी त्रासदी हो। समाज में एक जमाना था लोकहितो की सुरक्षा के लिये बड़े-बड़े आन्दोलन चलते थे और समाज ऐसे आन्दोलन कारियों को इज्जत और सम्मान की निगाह से देखता था परन्तु आज इस संसदीय शासन प्रणाली में निर्वाचित हुआ नेता कागजो में तो वह जनता का प्रतिनिधि कहलाता है परन्तु आचरण से वह जनता का निरंकुश, आतताही एवं निष्ठुर मालिक जैसा व्यवहार करता है। लोकायुक्त का दृष्टिकोण या लोकपाल जैसे शब्द को जैसे वह अपना दुश्मन ही मानता हो। सार्वजनिक जीवन में सुशासन, जवाबदेही, पारदर्शिता जैसे मुद्दो पर निर्वाचित नेता बहस नहीं करना चाहते है। देश के राजनैतिक दल अपने राजनैतिक दलो के लिये जो चन्दा इक्कठा करते है उसका हिसाब वह जनता को नही देना चाहते क्यों कि उन्हे यह डर है कि अगर जनता को मालूम पड गया तो कौन-कौनसे लोग दलो को चंदा देते है और किन लोगों के वोटो पर ये लोग जिंदा है तो इन दलो की वोट बेंक की राजनीति की चूहै हिल जायेगी। आज प्रत्येक राजनैतिक दल सार्वजनिक कोष के दूरूपयोग, भाई-भतीजा वाद, मनमानेपन, वंशवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, सामप्रदायिकता से ग्रस्त है। परन्तु प्रत्येक दल अपने फायदे के कारण आचरण के स्तर पर इन मुद्दो पर खिलाफत की बात नहीं करता। अब वक्त आ गया कि देश के प्रत्येक नागरिक को देश के लोकहितो की सुरक्षा के लिये लामबंद होकर संघर्ष करना होगा अन्यथा बहुत जल्दी ही स्वःहित को ही लोग लोकहित बोलना शुरू कर देंगे।

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

दुनिया के उपभोक्ता एक हो। अपने शोषण के खिलाफ - व्यास


                                                          दुनिया के उपभोक्ता एक हो। 
                                                        अपने शोषण के खिलाफ - व्यास
     जब से दुनिया में वस्तुएं उत्पादित होने लगी तब से ही ग्राहक या उपभोक्ता शब्द प्रचलित हो गया। एक जमाना था जब कहा जाता था उपभोक्ता बाजार का राजा है। इस विचारधारा का अर्थ यह था कि उपभोक्ता ही तय करता था कि बाजार में क्या चीज बिकेगी और क्या चीज नहीं बिकेगी। अर्थशास्त्र में पढ़ाया जाता था वस्तुओं की मांग से ही तय होता था कि कितनी वस्तुओं का उत्पादन हो और उसकी कीमत क्या हो। पर आज तो स्थितिया और परिस्थितियां बदल चुकी है। अब दुनिया का उपभोक्ता न तो बाजार का राजा रहा है और न ही उसके चाहने से वस्तुओं एवं सेवाओं का ही उत्पादन होता है। दुनिया का लगभग सात अरब उपभोक्ता अपनी खरीदने की ताकत को बचाये रखने के लिये अभिमन्यू की तरह युद्ध के मेदान में व्यापार एवं उद्योग के महारथियों से युद्ध कर रहा है। व्यापार व वाणिज्य के पक्ष में विश्व व्यापार संगठन प्रतिबद्ध होकर खड़ा है वह व्यापार व वाणिज्य के पक्ष में दुनिया की सरकारों को साम, दाम, दण्ड, भेद से प्रभावित कर रहा है परन्तु दुनिया का उपभोक्ता अनभिज्ञ, असंगठित, लूटा-पीटा किमकर्तव्य मुढ़ में खड़ा है। वह खुद नहीं ढ़ूढ पा रहा है कि उसकी बरबादी के कारण क्या है। जैसे-जैसे उपभोक्ताओं की सुरक्षा के लिये कानून बनाये जाते है वैसे-वैसे उपभोक्ता अपने आप को असुरक्षित महसूस कर रहा है। आई.एस.आई. भारत में वस्तुओं का मानक (स्टेण्डर्ड) तय करता है वैसे-वैसे बाजार में घटिया, अप्रमाणिक, निम्न स्तरीय व नकली वस्तुएं बाजार में धडल्ले से बिकने के लिये आ जाती है। शासन और प्रशासन इन पर अंकुश नहीं लगा पा रहा है और न्यायपालिका भी ये निश्चित नहीं कर पा रही है कि जिन वस्तुओं के लिये अनिवार्य रूप से आई.एस.आई. प्रमाणन आवश्यक है फिर कैसे उपभोक्ताओं के जीवन, स्वास्थ्य एवं सम्पतियों को खतरे में डालने वाले उत्पाद एवं सेवाएं बिक रही है। आज यह भी चिन्तन एवं चिन्ता का विषय हो गया कि किस प्रकार एकाधिकारी पूंजीपति घराने दुनिया के बाजारों में जो वस्तु एवं सेवाएं चाह रहे है बिकने दे रहे है क्योंकि इन बहुराष्ट्रीय निगमो की ताकत इतनी ज्यादा हे कि वे दुनिया की विभिन्न सरकारों को अपनी शर्तो पर काम करने के लिये तैयार कर ही लेते है। यही निगम दुनिया में हथियार भी बनाते है, हथियारों को बेचने के लिये कृत्रिम रूप से मांग भी खड़ी करते है और हथियारों को बेचने के लिये अन्ततोगतवा युद्ध भी थोप देते है। ईराक पर पूंजीवादी अमेरिका का हमला मात्र दुनिया के पेट्रोलियम पदार्थो के उत्पादन, वितरण की शक्तियों को अपने हाथ में लेना था। अब वक्त आ गया है कि दुनिया का उपभोक्ता स्वयं तय करे कि पूंजीपतियों की राजसता जो दुनिया के विभिन्न देशों में चल रही है उसका खात्मा होगा की नहीं। ये निश्चित है यदि इसी प्रकार से पूंजीवादी, सामा्रज्यवादी शक्तिया आगामी दो वर्षो तक और कार्य करती रही तो दुनिया में 80 प्रतिशत उपभोक्ता अपने मानवाधिकारों से न केवल वंचित हो जायगा बल्कि यतीमो, फकीरो, भीखमंगों की तरह जीने को मजबुर हो जायगा। इसलिये आज के दिन हम तय करे कि दुनिया के उपभोक्ता क्यो नही अपने हक की लड़ाई लड़े और शोषण मुक्त, अन्याय मुक्त, समता युक्त समाज के निर्माण में अपनी भूमिका निभाये अन्यथा इतिहास आन्दोलनकारियों को भी माफ नहीं करेगा।

एड़वोकेट प्रहलाद राय व्यास