शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

आम जनता के हित में पत्रकारिता वक्त का तकाजा: व्यास

हिन्दुस्तान में जबसे मद्रास में छापाखाने की शुरूवात हुई तब से लेकर हिन्दुस्तान की पत्रकारिता में बहुत उतार-चढ़ाव देखे है। देश में उस समय अंग्रेजों की सरकार थी। देश के कानून-कायदे, रीति-रिवाज, परम्पराएँ सब सामन्तवादी, अंग्रेजीयत से भरपूर थी। इस देश में राय बहादूर, साहब होना अच्छी परम्परा माना जाता था। देश के बड़े तथाकथित बुद्धिजीवी अपने आप को अंग्रेजों से जुड़ा हुआ होने पर गौरान्वित महसूस करते थे। अंगे्रजी एवं अंग्रेजीयत का बहुमत में न होते हुए भी राज प्रशासन एवं समाज के उच्च मध्यम वर्ग में भारी दबदबा था। सत्ता एवं प्रशासन में आम आदमी की कोई भूमिका नहीं थी। देश का किसान और मजदूर दास नहीं भी कहे तब भी गुलामों जैसी स्थिति में ही जी रहा था, विशेष रूप से राजस्थान का आवाम सामन्तवाद एवं अंग्रेजों की गुलामी के खिलाफ दो मोर्चों पर संघर्ष कर रहा था। ऐसे दौर में हिन्दी पत्रकारिता की महत्ति आवश्यकता थी। महात्मा गांधी से लेकर शहीद-ए-आजम भगतसिंह ने हिन्दी में देशभर में संवाद की आवश्यकता को महसूस किया था। माना जाता था कि हिन्दी वो रक्त की तरह है जो शरीर के हर हिस्से में पहुंचकर शरीर को शक्ति देता है। ठीक हिन्दी की भी भारतीय समाज जीवन में महत्ति आवश्यकता महसूस की गई थी। दक्षिण से लेकर उत्तर, पूर्व से लेकर पश्चिम भारत तक कांग्रेस ने हिन्दी के माध्यम से ही देश में आजादी के आन्दोलन को गति देना का फैसला किया था। 1990 के पहले तक देश की पत्रकारिता राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता से जुड़ी हुई थी परन्तु 1990 से लेकर आज दिनांक तक देश की पत्रकारिता वैश्विक अर्थव्यवस्था, लाभ की संस्कृति, पूंजीवादी सभ्यता एवं संस्कृति, उपभोक्ता एवं भोगवादी संस्कृति से स्वयं भी प्रभावित है एवं अपनी कलम से समाज को भी प्रभावित कर रही है। आज के दौर की पत्रकारिता सेवा का कार्य न होकर एक पैशे में तब्दील हो गई और पत्रकारिता को पैशा होना ही चाहिए परन्तु केवल निजी लाभ के लिए कुछ लिखना या कुछ न लिखना न व्यक्ति के हित में और न ही समाज के हित में। आज की पत्रकारिता काॅर्पोरेट संस्कृति की महज एक चारी बन के रह गई है। जबकि देश के आम आदमी की जरूरतों को पूरा करने वाली दबाव की नीति बनाने में पत्रकारिता को काम करना चाहिए था। आज आम आदमी की पहुंच में शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार, न्याय, आवास नहीं है। ऐसी स्थिति में जो सम्पन्न व्यक्ति है वो ही इन सुविधाओं का ठीक से इस्तेमाल कर पा रहे है अन्यथा व्यक्ति मानवीय गरिमा से वंचित गौर नारकीय जीवन जीने को मजबूर है। समाज का वंचित वर्ग जिसमें महिलाएं, बच्चे, वृद्ध, विकलांग, अनाथ लोग गौर तकलीफों में जीवन जी रहे है और देश ही नीतियां, नेता व नियत इनके जीवन से तकलीफ समाप्त करने के लिए गंभीर नहीं है। अब वक्त आ गया है देश की पत्रकारिता को सरकार की नीतियों को जो आम आदमी के हित में है उन नीतियों की जानकारी आम लोगों तक कराये साथ ही सरकार एवं प्रशासन को भी देश के आम आदमी की आवश्यकता, तकलीफ, भावनाएं, आक्रोश से समय-समय पर अवगत कराये। आवश्यकता होने पर जन आन्दोलन को प्रोत्साहित करने वाली पत्रकारिता को भी स्थापित करना होगा। उल्लेखनीय है कि आजादी के आन्दोलन में मुख्यधारा के पत्रकार देश की आजादी के आन्दोलन को अपनी पत्रकारिता एवं कलम की धार से ही न केवल प्रोत्साहित करते थे बल्कि वे स्वयं भी आजादी के आन्दोलन में सिपाही की भूमिका में भी नजर आते थे। देश का श्रमजीवी पत्रकार आज काॅर्पोरेट मीडिया की गुलामी का शिकार है परन्तु श्रमजीवी पत्रकारों के कथित संगठन न उन्हे गरिमामय जीवन दिला पा रहे है और न ही उन्हें समुचित सामाजिक सुरक्षा ही प्रदान करा पा रहे है। अब वक्त का तकाजा है कि पत्रकारिता आम आदमी के हित में हो एवं समाज आम आदमी के हित में काम करने वाले मीडिया के प्रति संवेदनशील सचेत एवं सुरक्षा कवच की तरह भूमिका निभाए।