शुक्रवार, 27 जून 2014

भारत में बाल श्रम न केवल अभिशाप, कलंक भी - व्यास

आजाद भारत में 26 जनवरी 1950 को देश का संविधान लागू हुआ। संविधान की मंशा के अनुसार देश में ऐसे गणराज्य की कल्पना की गई थी जो समाजवादी गणराज्य की अवधारणा पर खरा उतरता हो। परन्तु 1990 के बाद देश ने ऐसी अर्थव्यवस्था को स्वीकार किया जिसने समता, समानता, सहिष्णुता एवं सहअस्तित्व की धारणा को कमजोर कर दिया। 
शोषणविहीन न्यायपूर्ण समाज की रचना भारत के संविधान की आत्मा रही है। परन्तु देश में जिस शासन व्यवस्था को हम स्वीकार कर रहे है उस व्यवस्था में न केवल आर्थिक शोषण हो रहा है साथ ही राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर भी बहुसंख्यक समाज का निर्मम शोषण हो रहा है। वंचित वर्ग पूरी तरह वंचित ही है। इसके परिणाम स्वरूप बालश्रम निकल कर आया है। आज बंधआ मजदूरी, बालश्रम, ठेका मजदूर, सस्ता बुद्धीजीवी भी तकनीकी रूप से कुशल श्रमिक बनकर रह गया है। मोटे अनुमान के अनुसार देश में 6-7 करोड़ बालक है जो बालश्रमिक है। जिनके लिए शिक्षा, प्रशिक्षण, उचित देखभाल, संरक्षण, सुरक्षा केवल कागजी शब्द है। जब देश का बचपन कठोर श्रम कर के परिवार का पालन-पोषण करता हो तो कैसे अनुमान लगाया जा सकता है कि ऐसे बच्चे के मन पर अस्थाई आगात नहीं होंगे। आज देश का बचपन इन्ही मानसिक आघातों का शिकार है। आज बालश्रमिकों की तस्करी एवं यौनशोषण की बातें भी उभर कर सामने आ रही है। बच्चों के साथ में हिंसा एक नया रूप लेती जा रही है। आज दुनिया में बच्चों को आंतकवादी, माओवादी, चरमपंथी धार्मिक कठमुल्लाह बनाने का पक्का इंतजाम किया जा रहा है। ऐसे समय में हमें यह तय करना पडेगा कि यदि हम देश में शोषणविहीन न्यायपूर्ण समाज की रचना करना चाहते है तो निश्चित रूप से जिन परिवारों में बच्चें श्रम करते हो उन परिवारों मंें से कम से कम एक व्यक्ति को 280 दिन स्थाई रोजगार उपलब्ध कराना होगा जो न्यूनतम मजदूरी से कम देय नहीं होगा। साथ ही श्रम विभाग द्वारा संचालित तथाकथित बालश्रम विद्यालय की समीक्षा कराते हुए नये सीरे से देशभर में उच्च गुणवत्ता वाले आवासीय बालश्रम विद्यालय चालू करने पडेंगे जो नवोदय विद्यालय की तर्ज पर हो सकते है। आज भी श्रम विभाग या बाल अधिकार संरक्षण आयोग की जिम्मेदारी बनती है कि वे बच्चों के शोषण व अकल्याणकारी स्थितियों को आमुलचूल परिवर्तन करें। केवल अंतर्राष्ट्रीय चार्टर पर हस्ताक्षर कर देने से भारत सरकार अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो सकती। देश की न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका, मीड़िया एवं प्रबुद्ध समाज संगठनों की जिम्मेदारी बनती है कि वह देश में अन्यायपूर्ण व्यवस्था के खात्मे के लिए संवेदनशील होकर आचरण करें। केवल बयानबाजी ना करेें। आज सरकारें बदलने से यदि देश के हालात नहीं बदलते है तो जनता के साथ में यह एक राष्ट्रीय स्तर का धोखा होगा और ऐसे धोखेबाज लोगों के साथ क्या न्यायपूर्ण व्यवहार किया जा रहा है? यह देश का जनमत ही तय करेगा। 
मेरी स्पष्ट धारणा है कि यदि कोई भी सरकार दो साल साथ संतोष जनक कार्य न कर पाये तो देश की आम जनता को जनमत संग्रह के माध्यम से सरकार के क्रियाकलापों पर ठोस एवं प्रभावी कार्यवाही का अधिकार मिलना चाहिए। आज केवल सरकारें चुनाव जीत जाने के बाद में वे मान के चलती है कि देश के आम आदमी की अब कोई भूमिका ही नहीं बचती है। सूचना का अधिकार  कानून व्यक्ति को देश के हालात बदलने के लिए एक औजार भी उपलब्ध करवाता है। आवश्यकता होने पर भ्रष्टाचार व महंगाई के खिलाफ लड़ने का हथियार भी उपलब्ध कराता है। बेशर्ते देश की जनता ऐसे हथियार एवं औजार का इस्तेमान करना सीख जाये। इस हथियार एवं औजार को चलाने का प्रशिक्षण भी मैं लम्बे समय से देता आ रहा हूं तो मेरा अनुभव यह बोलता है कि सूचना का अधिकार कानून भ्रष्टाचार एवं महंगाई जैसे व्यक्तियों से लड़ने में ब्रह्मास्त्र तो नहीं हो सकता है परन्तु कारगर हथियार एवं औजार हो सकता है।