मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

विधि संसद ही नहीं बनाती है बल्कि प्रकति एवं ईश्वर भी बनाते है. व्यास

विधि शब्द अपने आप में ही विधाता से जुड़ा हुआ शब्द लगता है। आध्यात्मिक जगत में विधि के विधान का आशय विधाता द्वारा बनाये हुए कानून से है। जीवन एवं मृत्यु विधाता के द्वारा बनाया हुआ कानून है या विधि का ही विधान कह सकते है। सामान्य रूप से विधाता का कानून, प्रकृति का कानून, जीव-जगत का कानून एवं समाज का कानून। आज कानून का अर्थ या विधि का अर्थ राज्य द्वारा निर्मित विधि से आज पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है। राजनीति आज समाज का अनिवार्य अंग हो गया है। समाज का प्रत्येक जीव कानूनो द्वारा संचालित है। प्रकृति का भी अपना विधान है। प्रकृति अपने ही विधान से संचालित होती है। जल, वायु, आकाश, पृथ्वी और अग्नि भी प्रकृति के विधान से ही संचालित होती है। हजारो सालो से ये पांचो तत्व प्रकृति के विधान से ही संचालित होते है। भारतीय समाज में प्रत्येक जीव को इन पंचतत्वों का पूतला ही माना जाता है। जीवन से अंत तक प्रत्येक जीव इन्ही में ही जीते है और मरते हे। प्रकृति के साथ मनुष्य ने प्रकृति का विधान न जानने के कारण संघर्ष भी किया था।
परन्तु जैसे-जैसे मनुष्य जाति में प्रकृति के विधानोको समझना शुरू किया वैसे-वैसे उसने संघर्ष करने की बजाय समन्वय करना शुरू कर दिया। उसी का परिणाम है कि मनुष्य ने प्रकृति में जो शक्तिया है उसका इस्तेमाल अपने फायदे के लिये भी किया है। पर समाज के कुछ लोगों ने प्रकृति के विधान का रहस्य खोजने के बाद दुरूपयोग भी किया है। परमाणु से परमाणु बंब भी बनाया जा सकता है और परमाणु से अथाह उर्जा भी पैदा की जा सकती है। मनुष्य जाति के कुछ लोगों ने लोभ और लालच के कारण प्रकृति के साधनो का निर्मम दोहन किया जिसके परिणाम स्वरूप प्रकृति ने भी अपने विधान के अनुसार मनुष्य जाति को ही नही दूसरे जीवो को भी अपनी प्रतिक्रिया से प्रभावित किया है। भूकंप, बाढ़, तूफान, ज्वालामुखी ये सब प्रकृति के विधान को न मानने के कारण ही प्रकृति का विद्रोह है।
आज समाज में भी विधि के शासन के नाम पर दुनिया भर में सरकारे नागरिको के लिये विधि का निर्माण करती है। विधि का उदेश्य समाज के आचरण को नियमित करना है। अधिकार एवं दायित्वों के लिये स्पष्ट व्याख्या करना भी है साथ ही समाज में हो रहे अनैकतिक कार्य या लोकनीति के विरूद्ध होने वाले कार्यो को अपराध घोषित करके अपराधियों में भय पैदा करना भी अपराध विधि का उदेश्य है।संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1945 से लेकर आज तक अपने चार्टर के माध्यम से या अपने विभिन्न अनुसांगिक संगठनो के माध्यम से दुनिया के राज्यो को व नागरिको को यह बताने का प्रयास किया कि बिना शांति के समाज का विकास संभव नहीं है परन्तु शांति के लिये सहअस्तित्व एवं न्यायपूर्ण दृष्टिकोण ही नहीं आचरण को जिंदा करना भी जरूरी है। न्यायपूर्ण आचरण न होने के कारण ही आज समाज में अन्याय को ही न्याय मान लिया गया है। आज वक्त आ गया है न्यायपूर्ण समाज की रचना के लिये केवल विचार ही व्यक्त ना करे बल्कि न्यायपूर्ण आचरण भी करे तभी दुनिया में न्यायपूर्ण समाज की रचना संभव हो पायेगी। न्यायपूर्ण समाज में ही शांति, सदभाव, मैत्री, सहअस्तित्व कायम हो पाता है।

शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

देश की विधायिका क्या अपराधियों से मुक्त होने के लिए तैयार है ?-व्यास

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भारत सरकार आज देश की संसद में बैठे 162 दागी व्यक्तियों एवं देश की विभिन्न विधानसभाओं में बैठे 3000 हजार से ज्यादा दागी विधायिकों को ऐन-केन प्रकारेण चुनाव लड़ने के अधिकारों से वंचित नहीं करना चाहती है। सरकार ने आनन-फानन में अध्यादेश का मसोदा तैयार किया और केबिनेट से स्वीकृति हेतु पे्रषित किया परन्तु देश के विवेकशील, निःष्पक्ष एवं प्रतिभावान राष्ट्रपति महोदय से सरकार से जानना चाहा कि ‘‘वह क्यूं जल्दबाजी में जरिया अध्यादेश अपराधियों को बचाने पर आमदा है। क्यों कि देश के उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में स्पष्ट उल्लेख किया कि जिस जन प्रतिनिधि को किसी भी अदालत में 2 वर्ष से ज्यादा कारावास की सजा सुना दी है, वह व्यक्ति तत्काल प्रभाव से चुनाव लड़ने के लिये अयोग्य हो जायेगा और अपील कर देने के बाद भी उसको अयोग्यता से नहीं बताया जा सकेगा। देश की संसद में बैठे कुछ लोग किसी भी कीमत पर विधायिका को शायद अपराध मुक्त नहीं देखना चाहते है। भारत सरकार भी इस कृत्य के लिए कोई कम जिम्मेदार नहीं है। आज ही उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में राईट टू रिजेक्ट को मतदाता का महत्वपूर्ण अधिकार के रूप में मान्यता दी है। परन्तु देश के राजनैतिक दल, नेता किसी भी कीमत पर चुनाव सुधारों को लागु करने के प्रति ईमानदार नहीं है। देश की आम जनता हो ही तय करना है कि वे राईट टू रिजेक्ट जैसे ब्रह्यास्त्र का इस्तेमाल करते हुए अपराधी उम्मीदवारों को बहुमत से रिजेक्ट करें। मेरी मान्यता यह है कि 16.33 प्रतिशत वेध मतों का यदि राईट टू रिजेक्ट के पक्ष में वोट पड़ते है तो राईट टू रिजेक्ट जैसे मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए आवश्यका होने पर जनमत संग्रह भी करना चाहिए। आज पुरी दुनिया में पूंजीवादी, निरंकुश अर्थव्यवस्था ने दुनिया के आम आदमी का जीवन को नरक बना दिया है। आज व्यक्ति व्यक्तिवादी हो गया है जो केवल अपने हितों को ही सुरक्षित करने पर आमदा है। केवल व्यवस्था परिवर्तन से ही सामाजिक हितों की सुरक्षा संभव है। आज सामाजिक हितों की सुरक्षा की बात करना नितांत मूर्खतापूर्ण कार्य माना जाता है। वर्तमान में कर्म की दार्शनिकता का महत्व समाप्त होता जा रहा है। ऐसे में निष्काम कर्म की बात करना तो निश्चित रूप से फिजुल ही लगता है। सर्वहारा अधिनायकवाद ही लोगों के जीवन में कुछ जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति की गारंटी देता है। मेरी मान्यता है कि दुनिया में आवश्यकताएं सभी की पूरी होनी चाहिए परन्तु विलासिता किसी की भी पूरी नहीं होनी चाहिए। तभी दुनिया में सामाजिक न्याय का सपना साकार हो सकेगा। सामाजिक चेतना से ही सामाजिक नैतृत्व का उभार होता है। ऐसा उभार ही सामाजिक क्रांति को साकार करेगा।

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

लोक हित की सुरक्षा के लिए मीडिया को अपनी एतिहासिक भूमिका में आना होगा - व्यास

भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में राजनितिक लोगो का जितना योगदान रहा. उससे किसी भी मायने में कम योगदान समाचार पत्रों एवं पत्रिकओं का नहीं रहा था. चाहे हिंदुस्तान में नरम दल हो, चाहे या गरम दल दोनों ही विचारधाराओ की राजनीती को ताकत देने में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी.  आज भी मीडि़या पर लोक हितों की सुरक्षा की अहम जिम्मेदारी आ पड़ी है। ऐसे में उसको लोकरूचि एवं लोकहितों के बीच लोकहितों को प्राथमिकता देते हुए विचार धाराओं का संचालन करना होगा। आज कार्पोंरेट मीडि़या एवं पबिलक मीडि़या के बीच खुला संघर्ष की सिथति उत्पन्न हो गर्इ है। आज जनता के हितों की सुरक्षा के लिए लोकमत तैयार करना आवश्यक हो गया है। क्यूंकि आज देश का आम व्यकित न केवल अशिक्षित हैं साथ ही वह उदासीन भी है। ऐसे हालातों में नागरिकों को मूल अधिकारों, मानवाधिकरों एवं कानूनीधिकारों की जानकारी देना मीडि़या की महत्वपूर्ण भूमिका होगी।  आज हिन्दी भाषा में लाखों की संख्या में बिकने वाले बड़े अखबारों की जिम्मेदारी बनती है कि वह हिन्दी भाषी लोगों में दुनिया में बदलते हुए हालातों से हिन्दी भाषा में अवगत कराये। क्यूंकि दुनिया का ज्ञान, विज्ञान इतिहास सहित्य, कला का ज्ञान किसी एक भाषा का मोहताज नहीं होना चाहिये। पबिलक मीडि़या की जिम्मेदारी है कि वह ज्ञान विज्ञान एवं रोजगार की भाषा हिन्दी को बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करें। ताकि 60 करोड़ हिन्दी भाषी लोग दुनिया में प्रतिपल बदलते हालातों से नावाकिफ न रहें। ऐसे हालात में इलेक्ट्रोनिक मीडि़या को या प्रिन्ट मीडि़या या सोशल मीडि़या सभी को मिलकर लोकहितों की सुरक्षा के लिए स्वहित से ऊपर उठकर कार्य करना होगा। तभी मानव समाज अपने उच्च नैतिक मूल्यों को प्राप्त कर पायेगा। समाज में गिरते हुए नैतिक मूल्यों के कारण ही भ्रष्टाचार, अनाचार एवं अन्यायपूर्ण व्यवस्था पल्लवित और पोषित हो रही है। ऐसे में लोकहितों की सुरक्षा करना प्रेस की भागीरथ भूमिका होगी।


मंगलवार, 14 मई 2013

कागजो में मानवाधिकार बहाल, पर जमीन पे बेहाल - व्यास


     1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन हुआ। संयुक्त राष्ट्र संघ राज्यो का संघ है अर्थात सरकारे ही इसकी सदस्य होती है न कि नागरिक। आज दुनिया के सात अरब नागरिक अपने  मानवाधिकारों की बहाली के लिये निरन्तर संघर्ष कर रहे है परन्तु उन्हे मानवाधिकार हासिल करने में भीषण संघर्ष करना पड रहा है। यू तो कागजो में अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, तीस सूत्रीय अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणा, अन्तर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय, सुरक्षा परिषद, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिषद मोजुद है। समय-समय पर अन्तर्राष्ट्रीय घोषणाओं के माध्यम से भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों की बहाली के संकल्प पारित किये जाते है परन्तु भारत जेसे देश में भी भारत के संविधान मे नागरिको के मूल अधिकारों के माध्यम से मानवाधिकारो को मान्यता प्रदान की गयी है। साथ ही नीति निर्देशक तत्वो के माध्यम से सरकारो पर दायित्व दिया गया की वे नागरिको के सर्वांगीण विकास के लिये उचित कानून, सुविधाए एवं वातावरण तेयार करे। परन्तु 1947 से आज दिनांक तक देश के नागरिको को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, न्याय, आवास, पेयजल, पर्यावरण एवं जीवन को सम्मान के साथ जीने के लिये जो सुविधाए चाहिए वो आज भी 80 प्रतिशत लोगो तक नहीं पहुच पायी है। आज भी भारत में अनिवार्य शिक्षा कानून (निःशुल्क 2005) बन जाने के बावजुद भी 6-14 साल के बच्चे इस कानून का लाभ नही उठा पा रहे है क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय संधियो पर हस्ताक्षर करके सरकार चाहे अपने कर्तव्यो की इतिश्री करले दुनिया का जनमत नाराज न हो जाये इस लिहाज से आवश्यकतानुसार मानवाधिकारो से वंचित लोगो के लिये आवश्यक कानून भी बना दे तब भी नियत साफ न हो या आपको जिस कार्य को नहीं करने की इच्छा है वो कार्य आप कतई नही करेंगे। आज वो ही हाल भारत में स्पष्ट दिख रहा है। मानवाधिकार की धारा 30 के अनुसार देश भर में जिला एवं सत्र न्यायालयो को विशिष्ट मानवाधिकार न्यायालय घोषित करना था परन्तु सरकारो ने आज दिनांक तक क्यो नही घोषित किया ये मै नहीं समझ पा रहा हू। दूसरा सवाल यह है कि आज दिनांक तक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के वार्षिक प्रतिवेदनो एवं अनुसंशाओं के अनुरूप भारत सरकार ने क्या-क्या कार्य किये इसकी पालना रिपोर्ट न केवल संसद के पटल पर रखी जानी चाहिए बल्कि ऐसी पालना रिपोर्ट को मानव संसाधन मंत्रालय को अपनी वेबसाईट पर भी डालना चाहिए था परन्तु कार्यो के प्रति कमजोर निष्ठा ने ऐसा नही होने दिया। आज एक फेशन हो गया है कि नागरिको को कर्तव्य पालन के लिये कहा जाता है पर भारत के संविधान में नीति निर्देशक तत्व के अन्दर राज्य के कर्तव्य भी बताये गये है। जब राज्य अपने कर्तव्यों की पालना करते हुए देश के खजाने का एकन्-एक रूपये का लोककल्याण के लिये इस्तेमाल न करे तो वह किस मुह से नागरिको से उम्मीद करते है कि उन्हें संविधान के नागरिक कर्तव्यो का पालन करना चाहिए। आज कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका एवं लोकसंगठनो की जवाबदेही क्या देश के नागरिाके के प्रति नही है यदि है तो इन्हें जवाबदेही, पारदर्शिता एवं सुशासन के नियमों की पालना करते हुए नागरिको को उपरोक्त मुदो पर किये कार्यो का ईमानदारी से शपथपुर्वक कार्य विवरण पेश करना चाहिए ताकि जनता खुद आकलन करेगी। उपर बतायी गयी संस्थाए कितनी जवाबदेह है एवं कितनी पारदर्शी है।


गुरुवार, 14 मार्च 2013

दुनिया के उपभोक्ता एक हो - भूख, भय व भ्रष्टाचार के खिलाफ - व्यास


     15 मार्च को पूरी दूनिया में उपभोक्ता दिवस मनाया जाता है। इसका मतलब यह है कि दुनिया का उपभोक्ता आज भी अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित है। मसलन जानने का अधिकार है। आज भी उपभोक्ता जिन वस्तु एवं सेवाओं का इस्तेमाल करता है परंतु खरीदने से पहले उसको खरीदी जाने वाली वस्तु और सेवाओं के बारे में पर्याप्त एवं सही सुलभ जानकारी उपभोक्ता की भाषा में नहीं होती जिसके कारण उपभोक्ता को वस्तु एवं सेवाओं से न केवल ठगी का शिकार होना पड़ता है साथ ही उसे गुणवता हीन एवं स्तरहीन एवं नुकसान दायक वस्तुओं और सेवाओं से ही काम चलाना पड़ता है। आज भी भारत के अंदर उपभोक्ता को वस्तु एवं सेवाओं के लागत मूल्य जानने का अधिकार प्राप्त नहीं हुआ है केवल अधिकतम खुदरा मूल्य छपवाकर सरकारे अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेती हे पर वास्तविकता की हम छानबीन करे तो हम पायेगे की इसके पिछे भी बहुत बडे घोटाले छीपे हुए है जो उपभोक्ताओ को जानबुझकर लागत मूल्य जानने का अधिकार नही दिला रहे हे क्योकि उद्योग, वाणिज्य व सेवा क्षेत्र कभी नहीं चाहेगा कि उसके उपभोक्ता को उसकी वस्तु ओर सेवाओं का लागत मूल्य पता चल जाए। ऐसी स्थिति में उपभोक्ता को लागत मूल्य जानने का अधिकार बहाल नहीं हो जाता तब तक सरकारो द्वारा उपभोक्ता संरक्षण व सुरक्षा की बाते करना केवल उपभोक्ताओं को धोखें मे डालने वाली बात है।
    खाद्य अपमिश्रण कानून, ओषधि नियंत्रण कानून, आवश्यक वस्तु अधिनियम, पैकेज एक्ट एवं उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अलावा भी सेकडो कानून ऐसे हे जो उपभोक्ताओ को त्वरित, सुलभ एवं सस्ता न्याय देने की बात करते हे परंतु आज भी उपभोक्ता जिला मंचो से लेकर सुर्पीम कोर्ट तक जीतने के बावजूद भी अपने आप को हारा हुआ ही महसूस करता है और हारा हुआ उपभोक्ता तो खुद ही अपने आप को गोर निराशा के खडे में गिरा हुआ महसूस करता है। सरकारो ने कथाकथित जिला मंच एवं जिला उपभोक्ता संरक्षण परिषदो का राजनीतिकरण किया है जिसके परिणाम स्वरूप उपभोक्ताओ को न ही प्रशासनिक स्तर और न ही न्यायिक स्तर पर सही न्याय मिल पा रहा है। केवल कानून बना देने से उपभोक्ता को न्याय नही मिलेगा इसके लिये सरकारो, न्यायपालिका, मीडिया, उपभोक्ता जन संगठनो को संवेदनशील एवं सतर्क रहते हुए उपभोक्ताओं के हको को लागू कराने के लिए काम करना होगा। आज अंबेडकर जी की वह पंक्तियां याद आती है - शिक्षित बनो, संगठित रहो एवं संधर्ष करो। उपभोक्ता यदि इन पंक्तियों का आचरण का हिस्सा बना ले तो शायद सात अरब उपभोक्ताओ के जीवन में नयी क्रांति हो सकती । न ही तो यू ही हर 15 मार्च को हम अन्तर्राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस मनाते रहेंगे।

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

महिलाओं की आधी आबादी फिर भी महिलाएं हक के लिए मोहताज क्यों ? व्यास


    दुनिया में आज जो हालात है उन हालातो में समाज का वंचित वर्ग सबसे ज्यादा तकलीफ मे महसूस कर रहा है। उल्लेखनीय हे कि किसी भी जाति, धर्म, नस्ल, रंग के अंदर आज महिलाओं की हालत दूसरे दर्जे की ही है। सबसे ज्यादा विकसित राष्ट्र होने का दावा करने वाले अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों में भी महिलाअें को वोट के अधिकार हासिल करने के लिये लंबा संघर्ष करना पड़ा है क्योंकि पुरूष प्रधान व्यवस्था में आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं सता के केन्द्रो पर पुरूष वर्ग का ऐनकेन प्रकारेण नियंत्रण है परन्तु भारतीय परिवेश में देखे तो ये उल्लेखनीय है कि सभी देवताओं के महिसासुर से हारने के बाद वे अपने आप को बहुत अपमानित एवं कष्ट में महसूस कर रहे थे ऐसे में सभी देवताओं ने अपनी शक्ति से माँ दुर्गा को अवतरित किया और देवताअें की सामूहिक शक्ति के परिणामस्वरूप एवं विवेक, तर्कसम्मत के कारण उनको ये यथार्थ निर्णय लेना पडा अर्थात मां दुर्गा सामुहिक शक्ति का प्रतीक है जिसने अपसंस्कृति के प्रतिक महिसासुर का मानमर्दन किया था परन्तु आज समाज में शक्तियों के केन्द्र बिखरे हुए है। आज महिलाएं अपनी गरिमा के लिये संघर्षरत है। 8 मार्च को पूरी दुनिया में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है परंतु 100 वर्षो से लगातार महिलाओं के संघर्ष करने के बावजुद भी महिलाओ ंको उचित सम्मान एवं वो मानवीय हक भी नहीं मिले जिनकी वह हकदार थी। आज भी हिन्दुस्तान में महिलाओं को पार्लियामेंट एवं विधान सभाओं में अपने राजनैतिक प्रतिनिधित्व के लिये (33:) संघर्ष करना पड़ रहा है। ईमानदारी से कोई भी राजनैतिक दल भारत में महिलाओं को राजनीति में आरक्षण नहीं देना चाहता। महिलाओं के पक्ष में जितने भी कानून आज तक बन पाए वह भारतीय महिलाओं के सशक्त संघर्ष एवं मजबूत संकल्प का ही परिणाम है। महिलाआंे के विरूद्ध घरेलू हिंसा कानून हो या कार्यस्थल पर महिलाओं पर होने वाली यौन हिंसा, दहेज उत्पीडन निषेध कानून या अन्य सिविल या अपराधिक कानून सशक्त महिला आंदोलन का ही परिणाम है। आज भी महिलाओं पर ये इल्जाम लगाया जाता है कि वे फर्जी मुकदमे दर्ज करवाती है परंतु मै सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ-साथ 1988 से वकालात मे हू इसलिये मै अपने अनुभव से कह सकता हू पेशेवर लोग ही बडा चढाकर मामलो का ड्राफ्टींग करते है और कई ऐसे गवाहो को भी गवाहो की सूची मे जुडवा देते है जो पहले दिन से ही ज्ञात होता है कि वह पक्षद्रोही हो सकते है। जहा तक कानूनो के दुरूपयोग का सवाल है आयकर कानून, बिक्रीकर कानून, अन्य राजस्व कानूनो का उल्लंघन हुआ है और इसमे जितना भ्रष्टाचार हुआ है उतना तो महिलाओं के कल्याण के लिये बने हुए कानूनो से कोई नुकसान नहीं हुआ है और न ही महिलाओं ने 90 प्रतिशत मामलो में जानबुझकर गृहस्थी तोडने के लिये कानूनो का दुरूपयोग किया हो। अब वक्त आ गया कि हम पुरूष और महिलाएं पुन मिलकर यह निर्धारण करे कि पुरूष और महिलाओं के सामाजिक रिश्ते क्या हो ? आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, नागरिक अधिकार क्षेत्र में महिलाओं को कागजी पतिनिधित्व के बजाय वास्तविक प्रतिनिधित्व कैसे मिले। आज वक्त आ गया कि न्याय पूर्ण सामाजिक व्यवस्था बनाने के लिये लंबे, कठिन संघर्ष को चलाने की आवश्यकता है। इसके लिये हम सतत प्रयास करे।

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

केवल कानून बना देने से अपराधी का अपराध चरित्र नही मिटेगा - व्यास


     आज हर समस्याओं के समाधान के लिये आज कानून बनाये जाते है परन्तु समाज की कई समस्याओं का समाधान कानून के माध्यम से संभव नहीं है जैसे समाज मे गिरते हुए नैतिक मूल्य इसके परिणामस्वरूप आज समाज में ईमान, इंसाफ, ईज्जत, विश्वास, भावनाएं इन सब मुद्दो पर समाज में कोई व्यक्ति गंभीर नहीं है। मुनाफाखोर अर्थव्यवस्था में आज समाज का प्रत्येक व्यक्ति घाटे का सौदा नहीं करना चाहता है चाहे घर-परिवार, जाति-समाज, धर्म व आध्यात्मिकता इन सभी क्षेत्रों में आदमी का दृष्टिकोण हो गया कि उसे वही काम करना चाहिए जिसमें फायदा हो। आज जो हालात है कई महिलाएं परित्यकता, तलाक के आधार पर नौकरिया प्राप्त करने के लिये अदालत में जाकर पति-पत्नि दुर्भि संधि के आधार पर तलाक या परित्यकता प्रमाण पत्र ले लेते है। नौकरी भी लग जाती है और पति-पत्नि पहले की तरह साथ भी रहते है। कथित तलाक के बाद संताने भी पैदा होती है। अब सवाल उठता है कि क्या नौकरी प्राप्त करने के लिये तलाक जैसे हथियार का इस्तेमाल किया जाना नैतिक है ? दूसरा उदाहरण दो से ज्यादा संताने होने पर चुनाव न लड़ने देने की बाध्यता के कारण प्रत्याक्षी अपनी जायज औलाद को भी अपनी औलाद मानने से इन्कार कर देता है या किसी भी तरीके से किसी के यहा गोद रखने का एक स्वांग भी करता है परन्तु कथित एनकेन प्रकारेण चुनाव लड़ने की मानसिकता ने नैतिक मूल्यों को रसातल में पहुचाया है। आज कानूनो का इस्तेमाल राजनैतिक दल अपने फायद के लिये तो कर लेते है परंतु जिस घोषणा के आधार पर यह दल अपना रजिस्ट्रेशन करवाते है ठीक उसी के विपरित आचरण करके अनैतिक आचरण भी करते है और गैर कानूनी कार्य भी करते है। कथित चुनाव आयोग इन दलो का पंजीयन तो करता है परंतु लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम के अनुसार की गयी घोषणा का उल्लंघन करने पर इन दलो के खिलाफ चुनाव आयोग पार्टी का रजिस्ट्रशन खारिज करने या निलंबित करने तक के लिये कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं करता। आज सभी राजनेताओं द्वारा जाति, धर्म, क्षेत्र, लिंग के आधार पर जो विद्वेष पैदा किया जा रहा है न केवल देश की एकता व अखण्डता के खिलाफ है बल्कि अनैतिक आचरण भी है और कानून के विरूद्ध भी आचरण है। भारतीय संविधान के अनुसार कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका एवं जनसंगठनों या आमजनता की जिम्मैदारी है कि वे केवल संविधान सम्मत विचार ही नहीं रखे आचरण भी करे। आज जो कानून बन रहे है वह पूरी तरह जनता को राहत देने वाले नहीं भी है और कई कानूनो से समाज में विद्वेष भी पैदा हो रहा है। हिन्दुस्तान के कई कानून तो आदमी को अनैतिक आचरण करने के लिए न केवल विवश करता है बल्कि उसे प्रोत्साहित भी करता है इसलिए दुनिया को अपराध मुक्त करने के लिए कानून को हथियार व ढ़ाल के रूप में इस्तेमाल न करें केवल औजार के रूप में इस्तेमाल करे ताकि समाज में आ रही चुनौतियों का आप बेहतरीन तरीेके से समाधान निकाल सके।

शनिवार, 26 जनवरी 2013

शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

भारतीय गणतंत्र आम आदमी की उम्मीद पर खरा नही उतरा है - व्यास


     भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 से इस देश में लागू होने के बावजूद भी आम आदमी की उम्मीद, आकांक्षा, इच्छा, जरूरत को ध्यान में रखते कोई बुनियादी काम नही कर पाया हैं। आज तो हालात ये है कि गण और तंत्र दोनो आमने-सामने युद्ध के मेदान में दुश्मनो की सेनाएं जैसे खड़ी होती है वैसे खड़े है। आज गण के हित अलग है और तंत्र के हित अलग है। देश की कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका एवं देश के जनसंगठन कोई भी ठीक तरीके से जनभावनाओं के अनुरूप कार्य नही कर पा रहे है। 90 प्रतिशत जनसंगठन चाहे छात्र, युवा, महिला, श्रमिक या वंचित वर्ग के संगठन हो किसी न किसी राजनैतिक संगठन से निर्देेशित हो रहे है। जबकि होना यह चाहिए कि उन्हें निश्चित विचारधारा, कार्यक्रम व समयबद्ध योजना के आधार पर काम करना चाहिए। कार्यपालिका में सरकार के अन्दर बेठे जनप्रतिनिधि व नौकरशाह ऐसी नीतिया एवं कानूनो को लागू कर रहे है जो आम आदमी को न केवल तकलीफ में डाल रहे है बल्कि उसे भ्रष्ट बनाने के साथ-साथ नैतिक रूप से कमजोर भी बनाने का प्रयास किया जा रहा हैं। आज जो कानून बनते है उसमें इस तरह की अपेक्षा की जाती है कि वह साबित करे कि वह इमानदार है और उसने किसी कानून का उल्लंघन नही किया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि देश के आम आदमी को हमारी कार्यपालिका व्यवस्था इमानदार मानने को तैयार ही नहीं है क्योंकि नीतिया बनाने वाले खुद जब पारदर्शी नहीं होते है तो वह जनता की अदालत में जवाबदेही से बचने के लिए दोष जनता पर ही मढ देते है। देश की न्यायपालिका कुछ अपवादो को छोडके देश के वंचित वर्ग को उसके संवैधानिक अधिकारों को दिलाने में बहुत ज्यादा सफल नहीं हुई हैं। हिन्दुस्तान का 80 प्रतिशत व्यक्ति आज गरिमामय जीवन जीने के अधिकार से वंचित है। सूचनाएं आज भी आम आदमियों के बीच में नहीं जा रही हे। जिससे वो तय नहीं कर पा रहा है कि देश के खजाने का उपयोग कौन लोग किस प्रकार कर रहे है। कहा विकास हो रहा है और कहां विनाश हो रहा है। सार्वजनिक सम्पतिया एवं खजाने पर आम आदमी का या देशक े समाज का अधिकार होता है परन्तु सरकार में बैठने वाले लोग इसे महज सरकारी सम्पतिया एवं कोष मानकर मनमाने तरीके से इसका इस्तेमाल एवं आवंटन करते है। अब प्रश्न यह खडा होता है कि देश की संसद को या विधायिका को जो कानून बनाने चाहिए थे वो नहीं बने आज भी न्यायपालिका के क्षेत्राधिकार से कई ट्रीब्यूनल प्राधिकरण, मच बनाकर न्यायपालिका को कमजोर करने का अभियान चलाया जा रहा है। न्यायपालिका यदि न्यायिक अवमानना की धमकी देकर आम जनता को उनके खिलाफ विचार व्यक्त करने से रोकती है तो निश्चित तौर पर यह संविधान की भावनाओ के विपरित होगा। आज जनसंगठन, गैरसरकारी संगठन, स्वयंसेवी संगठन, धर्माथ ट्रस्ट एवं सामाजिक संगठन अपने आप को समाज के साथ जुड़ा हुआ परन्तु इन संगठनों पर भी पैसो के बल पर या राजनैतिक पहुच के आधार पर लोग काबिज हो जाते है और जनता की जरूरतो को दरकिनार करते हुए अपनी पहुच बनाने में लगे रहते है। आज हालात यह है कि गण या जनता पूरी तरह ठगा हुआ महसूस कर रही है। जनता की आवाज को बुलंद करते हुए मजबूत, प्रभावी, निश्चित दिशा व कार्यक्रम के आधार पर जनता की जरूरतो को मद्देनजर रखते हुए प्रभावी, संगठित एवं सतत आन्दोलन चलाने की आवश्यकता है ताकि जनता को उसके वास्तविक अधिकार हासिल कर सके। यह उल्लेखकरना लाजमी है कि जनता का आंदोलन जब तक जनता के पैसो से नही चलेगा तब तक वह आंदोलन जन आंदोलन न होकर जो पैसा लगाएगा उनका आंदोलन होगा।।

गुरुवार, 10 जनवरी 2013

अपराधजनित मानसिकता के कारण ही दूनिया में अपराध हो रहे है जिसका खात्मा जरूरी है-व्यास


     आज किसी भी समाज में जो अपराध होते है वह विशेष परिस्थ्तियो की देन है या व्यक्ति अनुवांशिक रूप से ही अपराधी होता है। आज दुनिया में मुख्यतः चार तरह के अपराधी नजर आते है। पहली श्रेणी में बिना किसी इच्छा के कोई कार्य हो जाये या यूं कहे कि बिना किसी आशय के किया जाने वाला कार्य जो अपराध हो जाए। इस तरह के मामलो में दण्ड विधान क्षतिपूर्ति दिलाकर या कम समय का कारावास की सजा दिलाकर अपराधी को सुधरने का अवसर दिया जाता है। दूसरी श्रेणी में वो अपराधी आते है जो आदतन अपराधी होते हे। इस श्रेणी में अपराधी की पारिवारिक एवं सामाजिक परिस्थितिया निश्चित रूप से उसे आदतन अपराधी बनाने में मदद करती हेै। इस श्रेणी के अपराधियों को भी समाज एवं परिवार की परिस्थितिया बदलकर सुधारा जा सकता है क्योकि अपराधजनित मानसिकता का बदलाव ही व्यक्ति में बदलाव को सुनिश्चित करता है। तीसरी श्रेणी में दक्ष एवं प्रोबेशनल अपराधी आते है जो किसी निश्चित अपराध को करने के लिये पूरी तरह ट्रेण्ड या प्रशिक्षित होते है। इस श्रेणी के अपराधियों का दिमाग बदलने के लिये उनके ट्रेनर उनके दिल और दिमाग को बदलने के लिये एक लम्बा अभियान चलाते है ताकि ऐसे व्यक्ति निर्धारित व्यक्तियों को एवं समाज को ऐन-केन प्रकारेण हर प्रकार से नुकसान पहुचाने के लिये आमादा हो जाते है चाहे उन्हे मानव बंब ही क्यो न बनना पड़े। चौथी और अन्तिम श्रेणी में सफेदपोश अपराधी आते है जिनको आम बोलचाल में सफेदपोस गुण्डा भी कहा जाता है या वाईटकोलन क्रिमीनल भी कहा जाता है। मजे की बात यह है कि इस तरह के अपराधियों को समाज अपराधी ही नहीं मानता है। साथ ही ऐसे अपराधी व्यक्ति समाज में पद, प्रतिष्ठा, सम्पति अधिकारो के केन्द्र में होने के कारण समाज का साधारण व्यक्ति इनके खिलाफ ठीक तरह से आवाज भी बुलंद नहीं कर पाता है परन्तु आम आदमी को यह मानसिक बदलाव करना पडेगा कि सफेदपोस अपराधियों के सजा से बच निकल जाने के कारण ही आदतन एवं प्रोबेशनल अपराधियों के हौसले बुलंद होते है। आज समाज में न्याय एवं दण्ड प्रशासन को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आदतन अपराधियों को एवं प्रशिक्षित अपराधियों को दण्डित करने के साथ-साथ सफेदपोस अपराधियों को भी कठोर दण्ड देते हुए न्याय प्रशासन का संचालन करना चाहिए नही तो समाज में यह धारणा हर समय बनी रहेगी कि ऊचे रसूक वाले जेल में नहीं जाएगा और जिसके कोई रसूकात नहीं है वो जेल में यू ही सड़ेगा। पैसा देकर छुटने एवं पैसे के बल पर बड़े से बड़े जुगाड़ को करने में ऐसे लोग सफल ना हो इसके लिये निर्णायक प्रयास होने चाहिए तभी अपराधजनित मानसिकता खत्म हो सकती है। समाज में नशा भी अपराधों को जन्म देने वाली स्थिति है इसमें भी बदलाव जरूरी है।

मंगलवार, 1 जनवरी 2013

विधि: आम आदमी है हासिये पर मुख्य धारा में शामिल होने की ...

विधि: आम आदमी है हासिये पर मुख्य धारा में शामिल होने की ...: आजादी के बाद हिन्दूस्तान का आम आदमी शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार, न्याय, उर्जा के साधन, पानी, आवास एवं पर्यावरण जैसे मुद्दो पर हासिये से वंचित...

आम आदमी है हासिये पर मुख्य धारा में शामिल होने की लड़ाई जारी है- व्यास


आजादी के बाद हिन्दूस्तान का आम आदमी शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार, न्याय, उर्जा के साधन, पानी, आवास एवं पर्यावरण जैसे मुद्दो पर हासिये से वंचित है। राजसता भारत में कार्पोरेट घरानो के हाथ में हे। देश के राजनैतिक दल, संसद, न्यायपालिका, पुलिस यहा तक कि मिलिट्री भी जाने अनजाने में कार्पोरेट घरानो के पक्ष में ही कार्य कर रही है। इसी स्थिति में कार्पोरेट घराने अपने पैसो के दम पर सरकारो को एवं राजनैतिक दलो को अपने पक्ष मे नीतिया बनाने में बाध्य करते है। वोट आम आदमी देता है परन्तु निर्वाचित होन के बाद उनके प्रतिनिधि उनके सेवक न होकर मालिक बन बेठते है। ऐसे में वो जिनसे चंदा, रिश्वत, दलाली लेते है उसी के पक्ष में खडे हो जाते है। अब तो सार्वजनिक जीवन में निर्लज्जमा चरम सीमा पर है। सार्वजनिक जीवन में जीवन मूल्य समाप्त से हो गये है। धार्मिक नेताओं से भी व्यक्तियों मे नैतिक मूल्य नहीं जिंदा हे। ऐसे में नागरिको में या आम आदमी में ये आम चर्चा है कि सार्वजनिक जीवन में कर्म की दार्शनिकता का महत्व समाप्त हो रहा है अर्थात जो हाड-तोड मेहनत करेगा वो तो यू ही भूखा ही मरेगा परन्तु जो लोगो के शोषण से पैसो का पहाड़ इकटठा करेगा वो ही दूनिया के एशो-आराम का भोगी होगा। इस नियति ने आम आदमी में भी ऐसो-आराम के प्रति एक ललक पेदा की है यही बाजारवाद का एक दुर्गुण है। इसी व्यवस्था ने आम आदमी तक को पथ भ्रष्ट करने का काम किया हैं। आज समाज में हिंसा, नशा एवं अश्लिलता तेजी से बढ रही है इसके पीछे पूंजीवादी व्यवस्था का सोचा समझा षडयंत्र है। जब तक आम आदमी इन तीन गुणो से मुक्त नहीं होगा तब तक आम आदमी को भी न्याय प्राप्त नही ंहोगा। केवल पार्टी बना देने से ही आम आदमी को न्याय नहीं मिल जायेगा इसके लिये नीतिया, नियत एवं निष्ठावान नेताओं की भी जरूरत पड़ेगी। 2013 से ही हमें न्यायपूर्ण समाज की रचना के लिये निरन्तर संघर्ष करना होगा। हमे धेर्य, विवेक और ज्ञान से लेस होकर नई समाज की रचना के लिये लड़ाई मे शामिल होना होगा। यही 2013 के लिये सही रास्ता हो सकता है।