मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

विधि संसद ही नहीं बनाती है बल्कि प्रकति एवं ईश्वर भी बनाते है. व्यास

विधि शब्द अपने आप में ही विधाता से जुड़ा हुआ शब्द लगता है। आध्यात्मिक जगत में विधि के विधान का आशय विधाता द्वारा बनाये हुए कानून से है। जीवन एवं मृत्यु विधाता के द्वारा बनाया हुआ कानून है या विधि का ही विधान कह सकते है। सामान्य रूप से विधाता का कानून, प्रकृति का कानून, जीव-जगत का कानून एवं समाज का कानून। आज कानून का अर्थ या विधि का अर्थ राज्य द्वारा निर्मित विधि से आज पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है। राजनीति आज समाज का अनिवार्य अंग हो गया है। समाज का प्रत्येक जीव कानूनो द्वारा संचालित है। प्रकृति का भी अपना विधान है। प्रकृति अपने ही विधान से संचालित होती है। जल, वायु, आकाश, पृथ्वी और अग्नि भी प्रकृति के विधान से ही संचालित होती है। हजारो सालो से ये पांचो तत्व प्रकृति के विधान से ही संचालित होते है। भारतीय समाज में प्रत्येक जीव को इन पंचतत्वों का पूतला ही माना जाता है। जीवन से अंत तक प्रत्येक जीव इन्ही में ही जीते है और मरते हे। प्रकृति के साथ मनुष्य ने प्रकृति का विधान न जानने के कारण संघर्ष भी किया था।
परन्तु जैसे-जैसे मनुष्य जाति में प्रकृति के विधानोको समझना शुरू किया वैसे-वैसे उसने संघर्ष करने की बजाय समन्वय करना शुरू कर दिया। उसी का परिणाम है कि मनुष्य ने प्रकृति में जो शक्तिया है उसका इस्तेमाल अपने फायदे के लिये भी किया है। पर समाज के कुछ लोगों ने प्रकृति के विधान का रहस्य खोजने के बाद दुरूपयोग भी किया है। परमाणु से परमाणु बंब भी बनाया जा सकता है और परमाणु से अथाह उर्जा भी पैदा की जा सकती है। मनुष्य जाति के कुछ लोगों ने लोभ और लालच के कारण प्रकृति के साधनो का निर्मम दोहन किया जिसके परिणाम स्वरूप प्रकृति ने भी अपने विधान के अनुसार मनुष्य जाति को ही नही दूसरे जीवो को भी अपनी प्रतिक्रिया से प्रभावित किया है। भूकंप, बाढ़, तूफान, ज्वालामुखी ये सब प्रकृति के विधान को न मानने के कारण ही प्रकृति का विद्रोह है।
आज समाज में भी विधि के शासन के नाम पर दुनिया भर में सरकारे नागरिको के लिये विधि का निर्माण करती है। विधि का उदेश्य समाज के आचरण को नियमित करना है। अधिकार एवं दायित्वों के लिये स्पष्ट व्याख्या करना भी है साथ ही समाज में हो रहे अनैकतिक कार्य या लोकनीति के विरूद्ध होने वाले कार्यो को अपराध घोषित करके अपराधियों में भय पैदा करना भी अपराध विधि का उदेश्य है।संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1945 से लेकर आज तक अपने चार्टर के माध्यम से या अपने विभिन्न अनुसांगिक संगठनो के माध्यम से दुनिया के राज्यो को व नागरिको को यह बताने का प्रयास किया कि बिना शांति के समाज का विकास संभव नहीं है परन्तु शांति के लिये सहअस्तित्व एवं न्यायपूर्ण दृष्टिकोण ही नहीं आचरण को जिंदा करना भी जरूरी है। न्यायपूर्ण आचरण न होने के कारण ही आज समाज में अन्याय को ही न्याय मान लिया गया है। आज वक्त आ गया है न्यायपूर्ण समाज की रचना के लिये केवल विचार ही व्यक्त ना करे बल्कि न्यायपूर्ण आचरण भी करे तभी दुनिया में न्यायपूर्ण समाज की रचना संभव हो पायेगी। न्यायपूर्ण समाज में ही शांति, सदभाव, मैत्री, सहअस्तित्व कायम हो पाता है।