मंगलवार, 14 मई 2013

कागजो में मानवाधिकार बहाल, पर जमीन पे बेहाल - व्यास


     1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन हुआ। संयुक्त राष्ट्र संघ राज्यो का संघ है अर्थात सरकारे ही इसकी सदस्य होती है न कि नागरिक। आज दुनिया के सात अरब नागरिक अपने  मानवाधिकारों की बहाली के लिये निरन्तर संघर्ष कर रहे है परन्तु उन्हे मानवाधिकार हासिल करने में भीषण संघर्ष करना पड रहा है। यू तो कागजो में अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, तीस सूत्रीय अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणा, अन्तर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय, सुरक्षा परिषद, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिषद मोजुद है। समय-समय पर अन्तर्राष्ट्रीय घोषणाओं के माध्यम से भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों की बहाली के संकल्प पारित किये जाते है परन्तु भारत जेसे देश में भी भारत के संविधान मे नागरिको के मूल अधिकारों के माध्यम से मानवाधिकारो को मान्यता प्रदान की गयी है। साथ ही नीति निर्देशक तत्वो के माध्यम से सरकारो पर दायित्व दिया गया की वे नागरिको के सर्वांगीण विकास के लिये उचित कानून, सुविधाए एवं वातावरण तेयार करे। परन्तु 1947 से आज दिनांक तक देश के नागरिको को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, न्याय, आवास, पेयजल, पर्यावरण एवं जीवन को सम्मान के साथ जीने के लिये जो सुविधाए चाहिए वो आज भी 80 प्रतिशत लोगो तक नहीं पहुच पायी है। आज भी भारत में अनिवार्य शिक्षा कानून (निःशुल्क 2005) बन जाने के बावजुद भी 6-14 साल के बच्चे इस कानून का लाभ नही उठा पा रहे है क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय संधियो पर हस्ताक्षर करके सरकार चाहे अपने कर्तव्यो की इतिश्री करले दुनिया का जनमत नाराज न हो जाये इस लिहाज से आवश्यकतानुसार मानवाधिकारो से वंचित लोगो के लिये आवश्यक कानून भी बना दे तब भी नियत साफ न हो या आपको जिस कार्य को नहीं करने की इच्छा है वो कार्य आप कतई नही करेंगे। आज वो ही हाल भारत में स्पष्ट दिख रहा है। मानवाधिकार की धारा 30 के अनुसार देश भर में जिला एवं सत्र न्यायालयो को विशिष्ट मानवाधिकार न्यायालय घोषित करना था परन्तु सरकारो ने आज दिनांक तक क्यो नही घोषित किया ये मै नहीं समझ पा रहा हू। दूसरा सवाल यह है कि आज दिनांक तक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के वार्षिक प्रतिवेदनो एवं अनुसंशाओं के अनुरूप भारत सरकार ने क्या-क्या कार्य किये इसकी पालना रिपोर्ट न केवल संसद के पटल पर रखी जानी चाहिए बल्कि ऐसी पालना रिपोर्ट को मानव संसाधन मंत्रालय को अपनी वेबसाईट पर भी डालना चाहिए था परन्तु कार्यो के प्रति कमजोर निष्ठा ने ऐसा नही होने दिया। आज एक फेशन हो गया है कि नागरिको को कर्तव्य पालन के लिये कहा जाता है पर भारत के संविधान में नीति निर्देशक तत्व के अन्दर राज्य के कर्तव्य भी बताये गये है। जब राज्य अपने कर्तव्यों की पालना करते हुए देश के खजाने का एकन्-एक रूपये का लोककल्याण के लिये इस्तेमाल न करे तो वह किस मुह से नागरिको से उम्मीद करते है कि उन्हें संविधान के नागरिक कर्तव्यो का पालन करना चाहिए। आज कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका एवं लोकसंगठनो की जवाबदेही क्या देश के नागरिाके के प्रति नही है यदि है तो इन्हें जवाबदेही, पारदर्शिता एवं सुशासन के नियमों की पालना करते हुए नागरिको को उपरोक्त मुदो पर किये कार्यो का ईमानदारी से शपथपुर्वक कार्य विवरण पेश करना चाहिए ताकि जनता खुद आकलन करेगी। उपर बतायी गयी संस्थाए कितनी जवाबदेह है एवं कितनी पारदर्शी है।


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